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कविता

दोष

दिव्या माथुर


बेवजह राम ने छोड़ा जब
कोई मित्र गया था आग लगा

चाहा था कि धरती फट जाए
बस और वह उसमें जाए समा

कृष्ण की बेवफ़ाई पर
वह ज़ार ज़ार यूँ रोई थी
अच्छा होता इससे 
तो वह
मर जाती पैदा होते ही

यौवन भी न उसका रोक सका
जब बुद्ध ने भी प्रस्थान किया
धन दौलत से भरा था घर
पर दिल उसका था टीस रहा

फिर टॉम, डिक और हैरी की
अनियमितता में भी वह तैरी
कुछ ठिठके, कुछ केवल ठहरे
कुछ बने जान के बैरी भी

अब बनता है संबंध कोई
कब टूटेगा वह सोचती है
कुछ नया पालने की उसको
टूटे तो खुजली होती है

इक स्थायी मित्रता की यूँ तो
वह आज भी इच्छा रखती है
आदर्श पुरुष की ख़ातिर वह
अपना सब कुछ तज सकती है

पर ये दुनिया न जाने सदा
क्यों दोष उसे ही देती है
राम, कृष्ण और विष्णु को
आड़े हाथों नहीं लेती है

नज़रअंदाज करती है सदा
पुरुषों की सरासर ज़्यादती को
उसके विरुद्ध शह देती है
क्यों टॉम डिक या हैरी को?


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